कठिनाइयों का,
सघन वन.
दिक्भ्रमित सा,
मन हिरन.
जाए किधर,
पथ न सूझता.
मुक्ति हेतु वो,
स्वयं से जूझता.
बिलकुल उसके,
सामने है द्वार.
पर चिंतित,समझता
खुद को लाचार.
वह चाहता,
बंधनों से मुक्ति.
निर्जन वन,
कौन बताए युक्ति.
एकाग्र हुआ वह,
खोला अंतर का पट.
दिखा मुक्ति का द्वार उसे,
अपने ही निकट.
अरे!सब कुछ तो,
है मेरे ही भीतर.
फिर व्यर्थ क्यूँ,
भटकता हूँ इधर-उधर.
आह कि अब तक समझा था उसने,
स्वयं को दुर्बल,विवश-अभागा.
अाज बंधनों से हो स्वतन्त्र वह,
सरपट लक्ष्य की ओर भागा.
रविवार, 24 दिसंबर 2017
||मुक्ति का द्वार||
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