रविवार, 24 दिसंबर 2017

||एक बेटे की चिट्ठी||

एक छोटा सा गाँव.
डाकिया एक बूढ़ी औरत के हाथ में एक चिट्ठी दे गाया.औरत ने उसे पढ़ने के लिए चश्मा आँख पर चढ़ाया
पत्र उसके बेटे ने लिखा था.
कैसा मजाक था यह.
कुछ दिनों पहले जिसकी रक्तरंजित लाश
तिरंगे से लिपटी हुई घर तक पहुँची थी,वोे खत कैसे लिख सकता था?
माँ ने चिट्ठी-पढ़ी.चिट्ठी पुत्र ने अपनी मौत से कुछ दिन पहले लिखी थी.पढ़कर उसके आँसू अनवरत बहने लगे.जैसे इस पत्र ने उसके हृदय के घाव को फिर से हरा कर दिया.
बेटे ने लिखा था.....

माँ,सादर चरण स्पर्श.

कुछ दिन पहले बहन ने बताया था कि आपकी तबीयत अब बेहतर हो गई है.
माँ मुझे आज भी वो दिन याद आता है जब पिताजी के मौत के बाद मजदूरी करके और दूसरों के घर बर्तन माँजकर आपने हमें पढ़ाया-लिखाया,पर मुझे इस बात का अफसोस है कि आपके इतने संघर्षों के बाद भी मैं एक सामान्य सैनिक ही बन पाया.लेकिन मुझे खुशी है भी है कि मेरी सरकारी तनख़्वाह के रुपयों से अब मेरी बहन बेहतर और ऊँची शिक्षा पा सकेगी.
माँ तुम तो जानती ही हो कि देश के कई जगहों की ड्यूटी के बाद अब मैं यहाँ पर तैनात हूँ.
माँ हमारा कार्य स्थल तो जैसे प्रकृति की गोद में बसा है.ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ,हरे-भरे साल-सागौन के वन,कल-कल कर बहती नदियाँ,पक्षियों के मधुर कलरव और वन में कई तरह के जीव भी यहाँ अनायास ही दिखाई दे जाते हैं.
कई साल पहले मैंने गुलशेर खान की मार्मिक कहानी "बस्तर में बाघ" पढ़ी थी.आह!उस कहानी में माड़िन नदी के निकट पत्ते तोड़ती एक आदिवासी युवती कोसी को खूँख़ार बाघ किस तरह अपने खूनी पंजों से मृत्यु की चिरनिद्रा में सुला देता है और उसके शव के हिस्से जंगल के अलग-अलग जगहों से बरामद होते हैं.उस कहानी के पढ़ने के बाद से ही बस्तर को देखने का स्वप्न जागा था.खैर शायद वो 30-40 साल पहले की घटना रही होगी.पर माँ आज भी यहाँ के लोग आदिम संस्कृतियों-परंपराओं-रीति रिवाजों के साथ उपेक्षित जीवन जी रहे हैं.विकास इनसे कोसों दूर हैं.

और माँ,बाघ यहाँ आज भी हैं.''शानी जी के बाघ'' से भी अधिक खूनी और खूँख़ार.संभवत: औद्योगीकरण के चलते बाहरी लोगों के हस्तक्षेप और स्थानीय लोगों की उपेक्षा के कारण ये और भी अधिक उग्र हो चुके हैं.
आए दिन हमारे भाइयों के "बाघों" द्वारा शिकार किए जाने की खबरें आती रहती हैं.माँ बाघों के निशाने पर प्राय: हम लोग ही हैं.बाघ ये नहीं जानता कि मैं एक भी एक इनसान हूँ.मेरा भी एक घर है.माँ-बहन हैं,एक हँसता-खेलता परिवार है.

माँ जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं है.आने वाले संभावित मृत्यु का भय त्यागकर हम सभी साथी मिल-जुलकर हँसते हैं-गाते हैं-नाचते हैं.
संभव है मैं भी कभी किसी दुर्दांत बाघ का निशाना बन जाऊँ और आप सबको मेरा शरीर क्षत-विक्षत अवस्था में मिले.पर माँ, बस्तर में  मरने पर भी मुझे आपकी गोद में शयन करने जैसा ही असीम सुख मिलेगा.

माँ पुन: चरण स्पर्श!बहना को आशीष और दुलार.

आपकी आँखों का तारा
      विजय

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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