न डरो कि छाले पड़ जाएंगे
तुम्हारे पांव में.
आकर देखो कभी,
हमारे बस्तर के गांव में.
जल-जंगल-जमीन के स्वामी होकर,
ये तुच्छ जीवन जीने को मजबूर हैं.
तुम ढिंढोरा पीटते हो विकास का,
पर विकास तो यहां से कोसों दूर है
महलों में रहने वालों,
कभी अभाग्रस्त जीवन जी कर देखो.
झोपड़ियों में रहकर और,
नाले का दूषित जल पीकर देखो.
बहाते ये पसीना पर,
न होता पैदा पर्याप्त अन्न.
मैले-कुचैले-विदीर्ण वस्त्र,
और हैं अर्धनग्न तन.
देखो कोसी भी,
कितने कम कपड़ों में,अधूरी सी लिपटी है.
जर्जर सड़कें,यहाँ चलना दूभर,
यहाँ की दुनिया बस गाँव तक ही सिमटी है.
वैसे तो ये केवल,
प्रकृति पदार्थों से ही पलते हैं.
पर नमक-तेल साबुन आदि के लिए,
ये मीलों दूर पैदल चलते हैं.
लोग यहाँ आकर उतारते हैं,
इनकी विवशता,निर्धनता-नग्नता की तस्वीर.
किंतु बदल न सकी अब तक,
इन बेचारों की तक़दीर.
आज़ादी के साठ साल बाद भी,
गाँव गहन अंधकार में डूबा है.
चमचमाती सड़कें-दौड़ती गाड़ियाँ,
ग्रामीणों के लिए अविश्वसनीय है-अजूबा है.
जिसका आज ही,
न हो अपना.
भला कैसे देखें वो,
एक बेहतर भविष्य का सपना.
आखिर कब तक,
सहते रहें ये संसार की उपेक्षा?
क्या न करें ये,
किसी सुखद परिवर्तन की अपेक्षा?
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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