रविवार, 24 दिसंबर 2017

||जीवन का सच्चा सुख||

यदि कभी आप हमारे शहर आएँ,वो बुधवार का दिन हो और सड़कों पर कई धराशायी देह दिख जाएँ तो तनिक भी अचरज न कीजिएगा.दरअसल इस इलाके में ये दिन छुट्टी का होता है.
इसलिए लगभग हफ्ते भर लोहे के पहाड़ की खुदाई में रत आदमी इस दिन महुए का रस पीकर-सड़क पर शयन कर असीम आनन्द प्राप्त करता है.
आह ये कितने महान हैं जो जीवन के महत्व को भली भाँति जानते-समझते हैं.जिस ज्ञान और सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए प्राचीन समय में साधू-सन्त जंगल में जाकर बरसों तपस्या किया करते थे,ये लोग उसे सहज ही प्राप्त कर लेते हैं.सन्तों को यदि ऐसे सुलभ-सस्ते मार्ग का ज्ञान होता तो वे व्यर्थ वन-वन भटकर अपना बहुमूल्य समय न गँवाते.
आदमी रुपये कमाए और सुकून-चैन के दो पल भी हासिल न कर पाए तो लानत है उसकी ऐसी नौकरी पर.
हाँ उनके माता-पिता,पत्नी,बच्चे घर में चिंतित रहते होंगे पर उन अज्ञानियों की चिंता व्यर्थ ही है क्योंकि इस संसार में कोई किसी का नहीं है.ये सारे रिश्ते-नाते कल्पना मात्र हैं-और हर व्यक्ति को अपनी समस्त संचित संपत्ति यहीं त्यागकर जाना है.तो वो भला क्यों और किसके लिए धन का संचय करे?
जब मानव माटी का एक पुतला है तो माटी को माटी में मिलाने का अभ्यास करना कोई बुरा ख़याल नहीं है.
मुझे लगता था कि ग्रामवासी ही इस मामले में अव्वल होंगे.पर शहर उस मामले में बहुत आगे है.ऐसा मनभावन दृश्य देखकर मैं स्वयं को बड़ा भाग्यशाली अनुभव करता हूँ और मुझे भारतीय होने पर गर्व होता है.
आह!मदिरा के नशे में डूबकर,सारी चिंताओं-कर्तव्यों से विमुख होकर धरती माँ की गोद में घण्टों सोने का आनन्द कैसा होता होगा?

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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