रविवार, 24 दिसंबर 2017

||बैलाडीला की व्यथा||

सूरज निकलने से पहले ही,
रोज एक भीषण शोर होता है.
स्वयं को धीरे-धीरे खत्म होता देख,
मेरा हृदय चुपचाप रोता है.

ये क्रम लगातार,
पचास सालों से चल रहा है.
कि तब से मेरा सीना,
लौहे का खजाना उगल रहा है.

केवल मेरे दोहन को,
यहाँ दौड़ रही है रेल.
यहाँ लोगों को मिला बस झुनझुना,
मस्त रह तू,उसी से खेल.

इससे मुझे कोई गिला नहीं,
क्योंकि मेरा जीवन ही है दूसरों के लिए.
पर मेरे ही संतान आखिर क्यों,
निर्धनता,उपेक्षा और अभाव का जीवन जिए.

क्यूँ मेरे अपने,
मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर हैं.
वे झोपड़ियों में रहने,
और गंदा पानी पीने को मजबूर हैं.

आज भी रोगी गाँवों में,
स्वास्थ्य सुविधाओं को तरसते हैं.
डोला बनाकर ले जाती औरतें,
रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं.

मुझ पर तो सबसे पहले,
मेरे बेटों का ही अधिकार है.
इसलिए वो सब ही,
समुचित विकास के हकदार हैं.

सोये हुए हैं लाल मेरे,
मैं करता प्रयास उन्हें जागृत करने का.
नित होता मेरा मौन रुदन,
आँसू झरते हैं नीचे,लेकर रूप झरने का.

कोई टिप्पणी नहीं:

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...