थी प्रातःकाल की बेला।
आज जागा मैं अकेला।
निकल पड़ा खेतों की ओर।
चहुँ ओर नीरवता,न कोई शोर।
अस्पष्ट से ओसयुक्त खेतों के मेड़।
कोहरे से लिपटे साल,आम, ईमली के पेड़।
सुन नदी तट कल कल की आवाज।
लगा हुआ मैं धन्य आज।
सुमधुर विहगों का कलरव।
मनभावन प्रभात का वैभव।
ऊषा नव दिन का सन्देश लाई।
पूर्व दिशा में लाली छाई।
कुछ क्षण बाद रवि उदित हुआ।
देख यह दृश्य मन मेरा प्रमुदित हुआ।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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