सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

।।सब अपने हैं।।

वक्त हाथ से,
निकला जा रहा है।
तू लक्ष्य से,
भटका जा रहा है।

जब कोई तुझ में,
कमी नहीं।
फिर बात तेरी,
क्यों बनी नहीं।

हर कहीं अत्याचार,
आज पसरा है।
अशिक्षा,अज्ञानता का,
सर्वत्र फैला कचरा है।

गैरों को देखने की,
किसेआज फुर्सत है।
हर एक की नजरों में,
आज पनपती नफरत है।

मां,बेटी,बहू आज,
"आइटम"कहलाते हैं।
निर्लज्ज देख उन्हें,
सीटियाँ बजाते हैं।

उनकी शैतानी आंखों में,
बिल्कुल भी नहीं शर्म है।
हम सब तो एक ही हैं
समझता कौन ये मर्म  है।

धन्य-यश पाकर,
फूल गया है।
क्या तू अपना कर्तव्य,
भूल गया है?

भयभीत रहे हो अब,
तक  तुझे अब नहीं डरना है।
समाज का नवनिर्माण,
तुम्हें ही करना है।

संसार रूपी बगिया का,
हर सुमन खिल सके।
खुश रहने का हक,
सबको मिल सके।

प्रयत्न कर इस तरह कि,
पत्थर पानी हो जाए।
आलसी,लुटेरा और शोषक,
पानी-पानी हो जाए।

प्राप्त कर वह सब जो,
अब तक  तेरे सपने हैं।
कोई नहीं पराया जग में,
सोचो तो सब अपने हैं।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn@gmail.com
📞9407914158

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