शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

||मृत्यु से क्यों डरूँ||

जीवन और मृत्यु बस दो शब्द।
जिसके मध्य मनुष्य,
झूलता रहता है आजीवन।
आशा और विश्वास जीवन है।
भय और निराशा मृत्यु है।
मगर मृत्यु और जीवन तो हैं,
दो पहलू एक ही सिक्के के।
दिन है तो रात भी।
पूनम है तो अमावस भी।
जमीं है तो आकाश भी।
जल है तो अग्नि भी।
धूप है तो छाँव भी।
धनी हैं तो निर्धन भी।
पाप है तो पुण्य भी।
सत्य है तो असत्य भी।
देव हैं तो दनुज भी।
शीत है तो ग्रीष्म भी।
जय है तो पराजय भी।
राम है तो रावण भी।
तब जीवन है तो
मृत्यु भी अवश्य होगी।
तो क्यूं व्यर्थ,
अपनी मृत्यु से डरूँ?
उचित है कि निर्भय हो,
मैं अपना कर्म करूँ।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

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