समझता था स्वयं को मैं
जगत का सबसे बड़ा धनवान।
रूप-रंग,जोरू-जर पर
मुझे बड़ा था अभिमान।
मिट्टी के तन को मैं
नित्य इत्रों से सजाता था।
कला-ज्ञान पर अपने
मैं बहुत इतराता था।
न सीखा मैंने कुछ औरों से
न किसी को कुछ दिया।
अपना संपूर्ण जीवन
व्यर्थ ही व्यतीत किया।
न असहायों की सेवा की
न किसी के काम आया।
काम,परनिंदा,चोरी,असत्य
सदा ही मुझे भाया।
हुआ कोई चमत्कार सा
मुझे स्व का भान हुआ।
अपनी असीम शक्तियों का
मुझे अब ज्ञान हुआ।
जाना मैंने अब कि सब कुछ
एक छलावा मात्र है।
यह जग रंगमंच और हम
एक नाटक के पात्र हैं।
धन,बल,शक्ति का अपने
क्यों न मैं सदुपयोग करूँ।
निज को विसर्जित कर
उचित है सबका सहयोग करूँ।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158
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