मैं अंधेरे में,
भटक गया हूं।
न चिराग कोई दूर तलक।
ना उम्मीद की कोई किरण।
मैं हताश-निराश।
किधर पूर्व,किधर पश्चिम।
कहां से चला कहां है मंजिल।
डर मन में घर कर रहा है।
आगे बढ़ूँ या रुक जाऊँ?
इंतजार में किसी के।
जो मुझे राह दिखाएगा।
दिया हाथों में लेकर।
मगर तब तक शायद,
सांसे ही ना बची रहें।
बेहतर है मैं खुद ही अपना दीपक बनूँ।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
Mob.9407914158
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