अन्जानी राह जैसे कोई अबूझ पहेली।
न आदि का पता न अंत की खबर।
लिए हताशा का बोझ,
चला जा रहा था मैं।
एक नीरवता सी पथ में,
राह भी उलझाने वाला।
कहीं चट्टानें,कहीं घाटियाँ,
कहीं काँटे,कहीं पर खाईयाँ।
चहुँ ओर एक चुप्पी सी
काँपते हुए मन ही मन,
मैंने खुद को,
सम्हालने की कोशिश की।
किन्तु होने लगा लक्ष्य से पूर्व वापस,
भयभीत मैं मृत्यु के डर से।
निराशा के गहन अंधकार में,
मैंने उसे देखा और साहस पाया।
उसने कहा"धिक्कार तुम्हें,
सोचो तुम एक मानव हो।
कुंठा,भय सब त्यागकर
सत्मार्ग पर बढ़ते जाओ।"
इक दिन तो सबको जाना है,
फिर मौत से क्या डरना है।
जीत हो या हार मिले,
बस अपना कर्म करना है।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail
Mo.9407914158
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