युद्ध भूमि में पितामह,
शरशैया पर पड़े थे।
माधव,कौरव-पांडव व अन्य योद्धा,
उनके चहुँ ओर खड़े थे।
तभी दुर्योधन ने कहा "पितामह
आप ने सदैव किया हमारे संग पक्षपात।
तन भले था किंतु मन,
आपका था पांडवों के साथ।
अन्यथा आप तो हैं कुशल योद्धा,
धर्म और नीति परायण।
किंतु आज आप देह त्याग रहे,
जबकि है अभी दक्षिणायन।
बोले भीष्म-"दुर्योधन जीवन भर तो सुनता आया,
अब तो तुम रहो तनिक मौन।
मुझे इच्छा मृत्यु का वर मिला,
इस विषय में कहने वाले तुम हो कौन?
हुआ जन्म मेरा कुरुवंश में,
यह मेरा सौभाग्य रहा।
किन्तु धर्म जानकर भी अधर्मी बना मैं,
यह मेरा दुर्भाग्य रहा।
जब तक न देख लूँ धर्म विजय।
मैं यहीं शयन करूंगा।
होगा न जब तक सूर्य का उत्तरायण,
मैं कभी नहीं मरूंगा। "
कहा फिर उसने अर्जुन से-" पुत्र!
करो मेरी एक समस्या हल।
मुझे तीव्र प्यास लगी है,
शीघ्र पिलाओ गंगाजल।"
सुन पितामह की वाणी,
अर्जुन ने भूमि पर बाण संधान किया।
जहां से निकली अमृतधारा,
जिसका पितामह ने पान किया।
मकर सक्रांति के पश्चात्,
जब सूर्य का उत्तरायण हुआ।
त्यागा पितामह ने निज देह,
उनका स्वर्गारोहण हुआ।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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