बहुमूल्य जीवन खोने का।
यह समय नहीं है सोने का।
उठो जागो अब इसी समय।
वरन दूर नहीं महाप्रलय।
क्या समाज-देश के तुम कर्जदार नहीं।
क्या तुम्हें इन्सानियत से प्यार नहीं।
धन यश पद के पीछे न भागो तुम।
लोक कल्याणहित निज स्वार्थ त्यागो तुम।
परहित को स्वहित मानो।
सबको अपना ही जानो।
देखो मानवता पर हो रहा कैसा अत्याचार है।
यदि अब न जागे तो, तुम पर धिक्कार है।
बदल डालो समाज की पाषाणमय कुरीतियाँ।
सृजन करो सर्व हितार्थ
नवीन सुन्दर नीतियाँ।
तभी मनुज होना सार्थक है।
मात्र स्वहितार्थ जीना,निश्चित ही निरर्थक है।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
E-mail:-kerawahiakn86@gmail.com
Mob.9407914158
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