वो बुलाए तो जाना ही होगा,
मृत्यु को कोई रोक सका है भला?
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।
पंच तत्व युक्त मानव तन,
जो कल था अपने पैरों पर खड़ा।
निर्जीव, शांत,अकेला,
आज धरा की गोद पड़ा।
जीवन यात्रा त्याग कर राही,
एक नई राह पर निकला।
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।
यह पिता-पुत्र,यह घर-परिवार,
सब कुछ यहीं छूट जाते हैं।
हमारे बनाए सब रिश्ते- नाते,
क्षण भर में टूट जाते हैं।
प्रत्येक के जीवन में,
आती है यह बला।
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।
रंग-बिरंगी यह दुनिया,
लगता है कि जैसे अपना है।
ज्ञात होता है एक दिन कि,
यह तो केवल सपना है।
इस सत्य को जान पाये,
शायद ही है कोई विरला।
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।
ईश्वर करे सभी को दुर्लभ,
मनुज जनम हर बार मिले।
खुशियों भरा स्वर्ग सा सुन्दर,
एक नया संसार मिले।
सभी सुखी हों जग में,
हो सब ही का भला।
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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