तन-मन-धन,सम्मान जलाए,
यह है ऐसी आग।
रे मानव नशे का कर त्याग।
अपने पिता,पत्नी,पुत्रों को
क्यों सताता है।
नशे का सेवन कर
क्यों जीवन व्यर्थ गँवाता है।
मानव जीवन मिलता दुर्लभ,
क्यों लगाए इस पर दाग।
रे मानव नशे का कर त्याग।
व्यसन कर देता है
मनुष्य का सर्वनाश।
अवरुद्ध होता है जिससे,
बलऔर बुद्धि का विकास।
इसमें इतना विष भरा
जैसे हो कोई नाग।
रे मानव नशे का कर त्याग।
विचार कर तनिक,
बैठकर आज।
कल क्या कहेगा तुम्हें,
अपना देश-समाज।
बाद में पश्चाताप करेगा,
जाग,अभी तू जाग।
रे मानव नशे का कर त्याग।
तन-मन-धन,सम्मान जलाए,
यह है ऐसी आग।
रे मानव नशे का कर त्याग।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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