रूदन करती अपनी,
हरित वसन भिगो रही थी।
वन बीच बैठी एक युवती,
अनवरत रो रही थी।
सुनकर उसका करूण क्रन्दन,
हृदय भर आया मेरा।
पूछा मैंने"कौन हो तुम?
क्या खो गया कुछ तेरा?"
बोली वह सिसकती हुई,
मैं माता हूँ बस्तर की।
पुत्र दुर्दशा पर न रोऊँ?
नहीं मूरत मैं पत्थर की।
जहाँ गूँजता था नित्य,
माँदर-झरने की आवाज।
घोटुल-गुड़ी,हाट-बाजार,
सुनसान पड़ा सब आज।
निश्छल,भोले,प्यारे वनवासी,
थाम चुके अब अस्त्र-शस्त्र।
रोज रक्त से लाल हो रहा,
मेरा यह सुन्दर वस्त्र।
यतीम हो गए कई,
कोई विधवा,कोई पुत्रहीन।
ये वही बस्तर है,
लोगों को अब होता नहीं यकीन।
जाने कब समाप्त होगी,
बस्तर में लाल क्रांति।
क्या कभी लौटेगी,
यहाँ पहले सी शान्ति?
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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