नया नहीं है मेरे लिए यह संसार।
अपितु आता रहा हूं मैं यहां बार-बार।
बदल कर सदा नया नाम,
लिंग,जाति, धर्म।
आता हूं मैं यहां,
करने अपना निज कर्म।
मैं यहां पर आता करने,
पाप-पुण्य व्यापार।
नया नहीं है मेरे लिए यह संसार।
अपितु आता रहा हूं मैं यहां बार-बार।
बना कभी जोसेफ,कभी बलविंदर,
कभी कृष्ण,कभी बना रहमान।
अलग अलग नामों से पूजूँ,
वही गॉड,अल्लाह और भगवान।
यह देश-मजहब की लड़ाई,
है बिल्कुल बेकार।
नया नहीं है मेरे लिए यह संसार।
अपितु आता रहा हूं मैं यहां बार-बार।
सोने सा यह तन मिट्टी का,
एक दिन जाएगा गल।
न था कभी अस्तित्व मेरा,
न जीवित रहूंगा मैं कल।
मेरा हर कर्म देख रहा वो,
उसके नेत्र हजार।
नया नहीं है मेरे लिए यह संसार।
अपितु आता रहा हूं मैं यहां बार-बार।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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