संस्कृति वेशभूषा और भाषा,
सब कुछ यहां निराला।
मैं बस्तर की बाला।
मैं बस्तर की बाला।
जहां बहती इंद्रावती पावन।
चित्रकोट प्रपात मनभावन।
सुमधुर मैना-कोयल की बोली।
रेला गाती युवतियों की टोली।
प्रकृति की लाडली मैं,
वन देवी ने है पाला।
मैं बस्तर की बाला।
मैं बस्तर की बाला।
प्यारी मुझे जमीन,जंगल,जल।
मैं क्या जानूँ क्या होता छल।
उड़द,कोदो-कुटकी,माड़िया।
खट्टा भाजी तो सबसे बढ़िया।
विश्वास इतना यहाँ कि,
लगता नहीं किसी के घर ताला।
मैं बस्तर की बाला।
मैं बस्तर की बाला
दंतेश्वरी का धाम जहाँ।
शाल-सागौन के वृक्ष यहां।
केशकाल के बारह मोड़।
सौंदर्य इसका है बेजोड़।
तन भले हो मैला सा,
मन नहीं अपना काला।
मैं बस्तर की बाला।
मैं बस्तर की बाला।
पढ़ूँगी कुछ कर दिखाऊंगी।
बस्तर को मैं स्वर्ग बनाऊंगी।
आँखो में परिवर्तन की आस।
हृदय में है मेरे दृढ़ विश्वास।
एक दिन अवश्य मिलेगी,
मुझे विजय की माला।
मैं बस्तर की बाला।
मैं बस्तर की बाला ।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
Mo.9407914158
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