गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

।।मैं विचरता हूं हर पल कल्पनालोक में।।

मैं विचरता हूं हरपल,
कल्पना लोक में।

यह दुनिया सपनों की,
लगती रंग बिरंगी है।
सत्य-असत्य का बोध कराती,
जैसे कोई संगी है।

आनंद के महासागर में,
आशाओं के आलोक में।

मैं  विचरता हूं हर पल,
कल्पना लोक में।

पल भर में महल बन जाते,
क्षण भर में मिट जाते हैं।
जैसी इच्छा करते हैं जो,
वैसा ही वे पाते हैं।

सुख पाऊँ तो रोने लगता,
खुश होता में शोक में।
मैं विचरता हूं हर पल,
कल्पना लोक में।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

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