सघन वनों के बीच,इन पहाड़ियों की तलहटी में
मैं रहता हूं.
चलो अपना दुख,
मैं आज तुमसे कहता हूं.
इन झोपड़ियों में रहने की और
डबरी का पानी पीने की.
मुझे तो आदत सी हो गई है
अभावों में जीने की.
पिस रहा दो पाटों के मध्य जीवन अपना.
तुम्ही कहो मैं देखूं भला कौन सा सपना.
इधर *ये*हैं और उधर *वो* हैं.
और चारों ओर अंधकार है.
इस अंधकार में क्या सत्य क्या असत्य.
कौन सच्चा और कौन झूठा
सब अदृश्य हो जाते हैं.
इस बियाबान से जो सत्य तुम तक पहुंचता है.
वह तुम तक पहुंचते-पहुंचते शायद दम तोड़ देता है.
यहां का सत्य तो बस मैं जानता हूं.
मैं जानता हूँ कि
कौन हैं वो जिसने हमारा घर जलाया.
वह कौन है जिसने हमें लाचार बनाया.
कितने ही भाईयों के सीने छलनी हुए.
कई बहनों के अस्मत लुट गए.
जाने कितनी माताओं के लाल उनसे छूट गये.
कितनी सुहागिनों की चूड़ियाँ फूट गए.
तुम्हारी दुनिया से सुनाई नहीं देते शब्द
किसी विधवा या मां के रोने की.
मैं तो रोज सहता हूं पीड़ा
किसी अपने को खोने की.
पर तुम्हें क्या लेना मेरे दर्द से
देखो तमाशा,
तमाशबीन बन कर सच्चाई की हार का.
पर यहां मत अलागना राग
किसी मानव अधिकार का.
रचनाकार अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail. com
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