हाँ पीड़ित है तू,
यह बात सही है.
पर औरों के दर्द के आगे,
तुम्हारी पीड़ा कुछ भी नहीं है.
तुम्हारे घर बटन दबते ही,
सफेद बल्ब जलते हैं.
पर कई लोग अब भी,
अँधेरे में चिराग लेकर चलते हैं.
तुम्हारा एक घर और,
सिर पर पर माँ बाप का हाथ है.
यतीम कई आज भी,
जिनका ठकाना ही फुटपाथ है.
तुमने तो कुछ न कुछ सीखा ही,
जाकर अपने स्कूल में .
पर वंचित कई शिक्षा से,कबाड़ खोजते,
लिपटे हुए वो धूल में.
कहीं पर मयखानों में,
रुपये पानी की तरह बरसते हैं.
पर कई लोग अब भी,
दाने-दाने को तरसते हैं.
और बहुत से लोग हैं,
दुनिया में दर्द सहने वाले.
पर सहकर भी,
चुपचाप रहने वाले.
पर भीतर तुम्हारे,
जाने कौन से स्वार्थ का कीड़ा है.
कि नजर आती तुमको,
बस अपनी ही पीड़ा है.
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail. com
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