मैं तो हूं सर्वत्र.
तू खोजता मुझे यत्र-तत्र.
यकीन करो या ना करो,
पर मैं सत्य कहता हूं.
कि मैं हर व्यक्ति के
भीतर रहता हूं.
आओ मैं तुम्हें कुछ दिखाता हूँ.
इस लड़के को देखो,
एक निजी शाला में पढ़ रहा रहा है.
यह नित नई,
ऊंचाइयों पर चढ़ रहा है.
कपड़े भी सुंदर और,
मन भी बिलकुल सच्चा है.
लगता ऐसे जैसे,
किसी धनवान का बच्चा है.
पर इसका पिता रोज,
शहर की सड़कों पर रिक्शा चलाता है.
और माँ दूसरों के घर,बर्तन मांझती है.
क्या इनके मां बाप इस बच्चे के लिए
ईश्वर नहीं हैं?
अब देखो इस अस्पताल में.
एक हाथ में दवाई और,
दूसरे हाथ में जिसे बैसाखी का सहारा है
सफेद वस्त्र पहने यह नर्स है,
जिसके सामने हर मुसीबत हारा है.
मांस के टुकड़े,खून,आदि से,
ये तनिक भी नहीं डरती है.
यह रोज अपने मरीजों के,
घाव साफ करती है.
क्या यह बहन उन मरीजों के लिए,
ईश्वर नहीं है?
अब ये देखो
घने जंगलों की पगडंडी से,
एक आदमी गुजर रहा है.
अब तक सच को दिखाने में
यह सदा निडर रहा है.
रोज खाक छानता है यह,
बस्तर के बियाबान में.
सत्य खोजता हर जगह,
हर गली,हर मकान में.
रसूखदार खरीदना चाहते उसे,
पर वह नहीं बिकता.
बहुत दर्द है इसके सीने में,व्यवस्था के प्रति,
पर वह प्रत्यक्ष नहीं दिखता.
क्या दुनिया को सच दिखाने वाला यह पत्रकार,
जनता के लिए ईश्वर नहीं है?
इसे भी देखो
यह जो ऊर्जावान व्यक्ति,
दिख रहा है.
जो श्यामपट पर,
कुछ लिख रहा है.
ये रोज बच्चों को,
ज्ञान वितरित करता है.
अशिक्षितों को यह,
शिक्षित करता है.
अपने बच्चों से करता है,
यह बेपनाह प्यार.
डॉक्टर,कलेक्टर से प्रधानमंत्री तक,
इसी के कारखाने में होते हैं तैयार.
क्या ये शिक्षक बच्चों के लिए,
ईश्वर नहीं है?
अब इसे भी देखो
अपने हरे भरे खेतों में,
श्रमजल बहा रहा यह किसान.
हल और बैलों को,
मानता है जो अपना भगवान.
अपने खेतों में नित,
नई-नई फसलें बोता है.
रूखी-सूखी खाता है और,
जमीन पर ही सोता है.
पर दुर्भाग्य कि अपनी उपज,
ये अपने पास कहां संचित रख पाता है.
कभी विपत्ति पड़ी तो इसे,
बहुत कम दामों पर बेच आता है.
क्या जग का पालक यह किसान,
ईश्वर नहीं है?
संसार के सुख-दुख,छाँव-धूप में.
मैं हूँ और कई-कई रूप में.
हे मानव तू औरों की पीड़ा को,
स्वयं में कर ले आत्मसात.
तब एक दिन प्रत्यक्ष आकर,
मैं तुम से करूंगा बात.
✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158
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