मर गया एक दिन चैतन,
छोड़ गया यह पृथ्वी लोक .
देवदूत पकड़कर,
ले गए उसे स्वर्गलोक.
बोला स्वर्ग का राजा कि भले ही,
तुमने नहीं कुछ पुण्य कमाया.
पर कभी भी तुमने,
किसी का दिल नहीं दुखाया.
इसलिए यह फैसला
किया जाता है.
कि तुम्हारे कर्मों के बदले,
तुम्हें स्वर्ग दिया जाता है.
अब तो तुम्हें,
स्वर्ग में ही रहना है.
कहो यदि तुम्हें,
कुछ कहना है.
संकोची,शर्मीला चैतन,
धीरे से अपना मुंह खोला.
भाव विभोर होकर,
वह स्वर्गाधिपति बोला.
अपने अमृत से इंद्रावती,
जिसे है सिंचित करती.
मिले मुझे फिर वही पावन,
दंडकारण्य की धरती.
मिले फिर मुझे "आया"का आँचल,
मिट्टी में वहाँ के खेलूँ.
महुआ,चार,सालबीज इकट्ठा करूँ,
भले ही कष्ट झेलूँ.
देखूँ सातधार,चित्रकोट,
तीरथगढ़ जलप्रपातों की सुन्दरता.
फिर सुुनुँ सघन वनों में,
पक्षियों के गायन की मधुरता.
करुँ फिर लिंगो,दंतेश्वरी,मावली
देव-देवियों की अराधना.
जन मन परिवर्तन हेतु,
करूँ मैं कठिन साधना.
माँ दन्ते के स्मरण से,
झंकृत होता रहे मेरा हृदय तार.
जाता रहूँ दर्शन को,
दरबार उनके मैं बार-बार.
मेरा हृदय तो है,
बस इसी का आकांक्षी.
पुनः बनूँ बस्तर के गोंचा
दशहरा पर्वों का साक्षी.
वो निश्छल,परिश्रमी,
सादा जीवन फिर से जियूँ.
नारंगी,शबरी सरीखे,
नदियों का शीतल जल पियूँ.
फिर घुमूँ पत्नी-बच्चों संग
मंडई-मेला.
हाथ कंधो पर धर परस्पर,
नाचूँ-गाऊँ रे रेला.
ऐसा आनन्द शायद नहीं है,
स्वर्ग के आमोद-प्रमोद में.
बहुत सुकून मिलता है मुझे,
मेरे बस्तर माई के गोद में.
इसलिए भले जो चाहो तुम,
मुझसे ले लेना.
एक बार फिर,
मुझे बस्तर में ही जन्म देना.
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail. com
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