लेखनी कहने को तो
है तू निर्जीव.
पर वास्तव में
तुम हो सजीव.
केवल स्याही ही नहीं
तुझमें सम्पूर्ण जगत समाया है.
धार तलवार सी तुझमें
तुझसे हर अधर्मी घबराया है.
तुम्हारे भीतर जैसे
कोई अद्भुत शक्ति है.
समर्थ तू,है संदेह किसे
तू कुछ भी कर सकती है.
वैसे तो हो मुख हीन तुम
किंतु पर जब तुम चलती हो.
किसी ज्वालामुखी सी
आग उगलती हो.
कभी शोषकों के शोषण को तो
कभी शोषितों की पीड़ा को प्रकट करती हो.
कभी जन जन के मन में
देशभक्ति का भाव भरती हो.
तुम भटके हुए को
नया मार्ग दिखाती हो.
और अज्ञानी को
नव ज्ञान सिखाती हो.
कभी करती तुम
सच्चे प्रेम की अभिव्यंजना.
और कभी प्रकृति के रूप में
करती ईश वंदना.
न पक्षधर किसी की तुम
सदैव तटस्थ रहती हो.
कितना ही कटु क्यों न हो
तुम सत्य ही कहती हो.
सतत् बहाती हो तुम
नवरसों की पावन सरिता.
कहती तुम कहानी कभी
कभी निबंध,संस्मरण,कविता.
साम्राज्ञी समय एक दिन
सब कुछ मेट देती है.
पर तू भीतर अपने
भूत और वर्तमान को भी समेट लेती है.
मन जैसे किसी दिव्य लोक में
खो गया है.
तुम संग रहते मुझे
तुमसे प्रेम हो गया है.
भाग्यशाली हूं कि
सानिध्य तुम्हारा मैंने पाया है.
तुम्हारे साहचर्य ने मुझे
एक नवीन पथ दिखाया है.
मेरे इस हाथ में तुम
अपना हाथ दोगी न.
जीवन के अंतिम क्षण तक
मेरा साथ दोगी न.
लेखनी यूँ मौन न रहो.
तुम मुझसे कुछ तो कहो.
रचनाकार अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail. com
📞940714158
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