मुझे लिखना है।
हां मुझे लिखना है ।
औरों के घर जाकर जी तोड़ पसीना बहाने वाले।
ईमानदारी की दो वक्त की रोटी खाने वाले।
निर्धन क्यूँ हैं अपने उसूलों पर जिंदगी बिताने वाले।
इसलिए मुझे लिखना है।
आजादी हो गई अब सत्तर साल पुरानी।
फिर भी विकास की गति पर होती है बड़ी हैरानी।
बीहड़ों में अब भी क्यों नहीं पहुंच सकी सड़क,बिजली,पानी।
इसलिए मुझे लिखना है।
क्या उदयन के माता-पिता ने प्यार बरसाया था उस पर कम।
कि हत्या करते हुए उनकी,आंखे न हुई तनिक भी नम।
आज की पीढ़ी में थोड़ी भी आखिर क्यों न बची शर्म।
इसलिए मुझे लिखना है।
दुर्योधन दुशासन सरीखे जाने कितने ही हैं आज।
हरण करने को आतुर जो,हर स्त्री की लाज।
आखिर कब समाप्त होगा इन पापियों का राज?
इसलिए मुझे लिखना है।
अपनी गिरफ्त में कर चुका है,सबको यह दानव नशा।
लोगों की इससे हो रही है बड़ी दुर्दशा।
क्या सुधरेगी भी कभी समाज की यह दशा?
इसलिए मुझे लिखना है।
लाखों-करोड़ों फूँकने पर भी दूर है अब भी लोगों से शिक्षा।
धनी भारत फिर भी लोग मांगते हैं सड़कों पर भिक्षा।
क्या मिटेगी भारत से भ्रष्टाचार,गरीबी और अशिक्षा?
इसलिए मुझे लिखना है।
योग्यता नहीं किंतु मन में कुछ नया करने की आस है।
ईश्वर करे कि न बुझे मेरे अंदर जो प्यास है।
मैं लिखूंगा तब तक,जब तक कि शरीर में श्वास है।
इसलिए मुझे लिखना है।
हाँ मुझे लिखना।
रचनाकार:- अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158
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