गुरुवार, 9 मार्च 2017

||चलो मेला घूम आएँ||

आओ तनिक,
मेले का आनन्द ले लें.
ये देखो सामने अंगूर,सेब
केले,संतरे के ठेले.

चलें थोड़ा अंदर,
हाथों में मेंहदी लगाने बैठी ये गुड़िया.
ये हलवाई की दुकानें,
ऊपर टँगी मिठाईयों की पुड़िया.

ये बच्चों के खिलौने,
वो गन्ने का रस निकालता जूसवाला.
ये कपड़े की दुकान,
कपड़ा सफेद,नीला,काला.

ये जूते-चप्पलों की दुकान,
यहाँ देखो सादे-धूप वाले चश्मे.
पर खरीदी करो उतना ही,
जितना हो खुद के बस में.

साड़ी माँ के लिए,
बच्चों के लिए खरीद लें गुब्बारा.
ऐसा मौका जाने,
कब मिलेगा दोबारा.

ये मौत का कुआँ,सरकस,
यह रहा अाकाश झूला.
यहाँ आकर हर कोई,
अपने आप को भूला.

पर तुम क्या जानते हो?
कि ये बालिका,
जो सबके बीच मेले में मेंहदी लगाने बैठी है,
अनाथ है.

कपड़े-केश,अस्त-व्यस्त,
पर ये स्वयं में कितनी मस्त.
महरुम भले ही यह शिक्षा से.
कहती ज्यों,
पारिश्रमिक श्रेष्ठ है भिक्षा से.

ये हलवाई भी,
जो बना रहा है,
मीठे रसदार रसगुल्ले और जलेबी.
वह अपनी पत्नी बच्चों को,
घर में छोड़कर आया है.
कितनी अजीब इस बलिश्त भर,
पेट की माया है
भीतर भले उदासी,
मुख पर प्रसन्नता छाई है.
तभी बना पाता वह,
कई तरह की मिठाई है.

ये मौत के कुएँ में दुपहिया चलाने वाला,
माँ का इकलौता लाल है.
जोखिम का काम ये करता पर,
माँ का घर में रो-रो बुरा हाल है.
यह जान हथेली पर रखकर,
सैकड़ों बार वाहन चलाता है.
पर माँ की प्रार्थना से वह,
मौत को भी चकमा दे जाता है.

ये आदमी जो,
काजू,बादाम,खजूर बेचने  लाया है.
शायद अपनी तीन चार साल की,
बच्ची को छोड़ आया है.
गले में लटक रही,
हरे-हरे मनकों की माला.
शायद यही है,
टैगोर की कहानी का "काबुलीवाला".

हर निर्माण की नींव में,
कई पत्थर भी दबे होते हैं.
तब जाकर किसी इमारत में,
इनसान चैन की नींद सोते हैं.

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

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