एक व्यक्ति जिसके मन में,
लिखने का था अजीब सा जुनून.
शोषण,परपीड़ा देखकर,
खौलता था उसका खून.
पर भय था उसे कि,
उसे कोई पढ़ेगा या नहीं.
क्या वह लिखेगा,
वह होगा बिल्कुल सही.
इसी सोच में उसका,
आधा जीवन व्यर्थ बहा.
था योग्य किंतु वह,
शांत,सुप्त, मृत सा रहा.
एक दिन पास आ,प्रेम से,
उससे बोला उसका गुरु.
तुझ में है असीम संभावना,
क्यों न करो तुम लेखन शुरू.
तुम्हारी रचना भले ही,
किसी को न भाए.
पर लिखो तुम,
तुलसी की तरह स्वांत: सुखाय.
बोला शिष्य लिख तो लूँ पर,
त्रुटियों पर मेरी कोई हँसेगा तो नहीं.
मेरी बचकाना हरकतों पर समाज,
व्यंग्य कसेगा तो नहीं.
बोले गुरु तुम,
व्यर्थ की चिंता करते हो.
औरों से अकारण ही,
तुम डरते हो.
कहने दो यदि कहते हैं,
कुछ कहने वाले.
ये कल भी थे और ये हैं ,
कल भी रहने वाले.
अब तक जगत में,
किसकी नहीं हुई है आलोचना.
पर तू निश्चिंत हो कर्म कर,
उस विषय में तनिक भी न सोचना.
तू कहता है न कि किस विषय पर लिखूँ?
लिखो इस महुए,पलाश,अमलतास के
पुष्पों की सुंदरता पर.
लिखो नशा,दहेज,शोषण,
अत्याचार की विकरालता पर.
प्रसाद महादेवी पंत निराला सा,
स्वयं में अनुभव कर तू औरों की पीड़ा
इस दिक्भ्रमित समाज परिवर्तन हेतु,
तुम इतना तो उठाओ बीड़ा.
न तोड़ना कोई पत्थर तुम्हें,
न ही पसीना बहाना है.
शोषितों,पीड़ितों के पक्ष में,
बस अपना कलम चलाना है.
पर याद रखना सदा कि,
आत्ममुग्ध कभी नहीं होना.
संसार के बुराईयों की भीड़ में,
अपनी अच्छाई कभी न खोना.
नित्य सत्कर्म,सत्विचारों से,
कर स्वच्छ मन का दर्पण.
जो कुछ करता है,
कर वह अपने प्रभु को अर्पण.
ऐसा करके जब,
तू कल नहीं रहेगा.
पर कोई न कोई ,
तुम्हारे विषय में जरूर कहेगा.
✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें