शुक्रवार, 17 मार्च 2017

||सच्चा सुख||

        

संसार का हर व्यक्ति आज सुख के लिए प्रयत्नशील है. स्वयं को बेहतर से बेहतर स्थिति में ले जाना तथा सुख शांति की इच्छा करना मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति रही है.वह चाहता है कि सभी उनसे प्रेमभाव रखें,उसके पास किसी चीज की कमी न हो,वह सदैव हंसता-गाता,मुसकुराता रहे. मनुष्य चाहता है कि उस पर विपत्तियों की बिजली न गिरे,दुखों का पहाड़ न टूटे,उसे रोना न पड़े,वह जीवन भर आराम की जिंदगी व्यतीत करता रहे,लेकिन ऐसा संभव नहीं है .हरदम सुख के झूले पर झूलने का स्वप्न देखना मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है,क्योंकि संसार परिवर्तनीय है. यह प्रतिक्षण बदल रहा है ऐसे में हम सदैव एक जैसी स्थिति में गुजारा कर सकें ऐसा संभव नहीं है.

सुख विषय पर विचार ने के पूर्व हम जान लें कि सुख क्या है?इसका मानक क्या है?
सुख-दुख वास्तव में मन की एक स्थिति मात्र है जो मनुष्य के जीवन को लगातार प्रभावित करता रहता है.सुख या दुख का कारण मानव का मन है.मन एक घोड़ा है,बेलगाम घोड़ा. यह जिधर पाए उधर दौड़ता है.मानव मस्तिष्क में सदैव कुछ न कुछ विचार आते-जाते रहते हैं. विचार कर्म के रूप में परिणित होते हैं.यह कर्म किसी न किसी कारण के लिए किया गया होता है.यदि कर्म का फल आशा के अनुरूप हो तब हम प्रसन्न हो जाते हैं,और वहीं विपरीत परिणाम हमें व्यथितत करता है.लेकिन परिणाम पर मनुष्य का वश नहीं है,मनुष्य कर्म के फल पर नियंत्रण नहीं रख सकता.इसीलिए तो भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म पर है उसके फल पर नहीं.जब किसी कार्य के परिणाम या फल पर हमारा वश नहीं हो सकता तो फिर सुख या दुख हमारे वशीभूत कैसे हो सकते हैं?

प्रकृति स्वयं अपूर्ण है.ग्रीष्म,शरद,वर्षा,आदि  ऋतुएँ आती हैं,और चली जाती हैं.प्रतिदिन सूर्योदय और सूर्यास्त होता है.हम सब प्रकृति के पुत्र हैं और जब हमारा पिता ही आधा है,तब हम कैसे पूर्ण हो सकते हैं.सत्य यही है कि मनुष्य कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता.उसीे समस्त इच्छाएं,सभी सपने पूरे हो जाएँ,ऐसा कदापि संभव नहीं है.आज तक न कोई पूर्ण बन सका और न ही पूर्ण बन सकेगा.

सुखी वह नहीं है जिसके पास सुंदर वस्त्र,स्वर्ण आभूषण,आलीशान महल,स्वचालित वाहन और अकूत संपत्तियां भरी पड़ी हैं.लेकिन आज इन्हीं क्षण-भंगुर वस्तुओं को सुख और  मान-सम्मान के मानदंड मान लिये जाते हैं. इन सब वस्तुओं से जिसका घर भरा पड़ा है,जिसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ है,वही आज सुखी कहलाता है.फलत: मनुष्य इन्हीं सांसारिक तथा व्यर्थ की वस्तुओं की लालसा करते हुए उसके लिए प्रयत्नशील रहता है.

वास्तव में संतोष ही सच्चा सुख है.इसीलिए तो कबीरदास जी ने कहा है- साईं इतना दीजिए जा में कुटुम समाय,मैं भी भूखा ना रहूं साधु नभूखा जाय|
संतोषी होने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपनी इच्छाओं का दमन करें,बल्कि हमें चाहिए कि हम अपने कर्म के परिणाम से विचलित न होकर सुख-दुख में एक जैसा बने रहेें.संतोष और प्रसन्नता ही वास्तव में सच्चा सुख है.जो संतोषी होता है,जो सदैव प्रसन्न है,वही संसार का सबसे सुखी व्यक्ति है.
इसलिए हमें सदैव संतुष्ट और आनंदित रहना चाहिए.

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"

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