मां पिताजी गर तुम ना होते
तो जाने आज मैं क्या होता.
घूमता मासूम यतीम बच्चों सा किसी शहर में.
कंधे पर लटकाए सफेद बोरे,
इकट्ठा करता सड़कों से.
फेंके गए पॉलिथीन की थैलियाँ,
कागज के टुकड़े और शराब की बोतलें.
बाल भी बिखरे हुए और
कपड़े भी होते फटे हुए.
न ठिकाना होता मेरा
किसी फुटपाथ पर सोता.
मां पिताजी गर तुम ना होते
तो जाने आज मैं क्या होता
घर में बना कर रोटियां मुझे कौन खिलाता.
असफल हो गए बेटा,कोई बात नहीं
फिर से कोशिश करना!
ये मुझसे कौन कहता.
कहीं न लगता फिर मेरा मन.
आप बिन बिल्कुल नीरस होता जीवन.
यदि चोट लगती कभी मुझे
किसकी गोद में बैठकर मैं रोता.
मां पिताजी गर तुम ना होते
तो जाने आज मैं क्या होता
यहाँ तो फुर्सत किसे है दूसरों को देखने की.
फिर कौन कराता मुझे पहचान अच्छे-बुरे की.
चल पड़ता मैं किसी अंधेरी दुनिया में,
या किसी पाप के सागर में
खा रहा होता शायद मैं गोता.
मां पिताजी गर तुम ना होते
तो जाने आज मैं क्या होता.
रचनाकार :-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158
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