शुक्रवार, 3 मार्च 2017

।।मैं जानकर भी अन्जान।।

अच्छे बुरे हर चीज की,
है मुझे पहचान।
फिर भी मैं,
बना हूँ अब तक अंजान।

जानता हूँ कि मेरे लिए,
हानिकारक है सिगरेट।
फिर भी पीता हूँ इसे,
जैसे कि भरता हो इससे मेरा पेट।

झूठ बोलना अनुचित है,
पर मैं कहाँ मानता हूँ।
मैं तो बस अपना,
काम निकालना जानता हूँ।

मैं जानता हूँ कि,
सही नहीं है पर स्त्री की भक्ति।
पर हूँ मैं कामांध,
छाई रहती है मुझ में सदा ही आसक्ति।

मुझे पता है अच्छी तरह,
कि मय का नशा है खराब।
पर फिक्र मुझे किस बात की,
पीता हूँ रोज शराब।

नहीं सीखा मैंने कुछ भी,
बस औरों को सिखाना आया।
अंदर में है नफरत मगर,
बाहर से प्यार दिखाना आया।

जानता हूँ मैं कि,
महाभारत जैसा युद्ध क्यों हुआ?
फिर भी निश्चिंत होकर,
मैं खेलता हूँ जुआ।

औरों के गिरने पर,
मैं बजाता हूँ तालियाँ।
बेवजह ही किसी को,
देता हूँ अश्लील गालियाँ।

मुझमें इतने अवगुण भरे,
मनुज नहीं मैं दानव।
किंतु अपने संतानों को,
बनाना चाहता हूँ महामानव।

नित्य पापों से घिरा रहता हूँ,
मैं अहंकारी शैतान।
कहो क्या मैं बना सकता हूँ,
अपनी संतानों को सच्चा इंसान?

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

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