दाई तोर बर मँय का लिखँव
का लिखँव कि मोर कलम,
तोर बिसय म नई लिख सकय.
तोर भीतर हे कत्तिक पीरा,
ए दुनिया ल नई दिख सकय.
दाई नान्हे बेरा तँय मोला पाले-पोसे वो.
का घाम का बरसा जाड़ एला तँय नी सोचे वो.
कनिहा के तीर लटका के मोला मड़ई बजार लेगे वो.
का खिलवना लेबे,का खजानी खाबे बेटा? मोला तँय पूछे वो.
दाई तोर बर मँय का लिखँव.
मोर कलम तोर बिसय म नइ लिख सकय.
रोज इसकूल जात खनि मोला करे तैयार वो.
अपने दरद ल बिसार के बरसाए मया-दुलार वो.
मोर खुसी म हाँसे दुख म मोर तँय रोए वो.
मोर नींद के खातिर तँय रात-रात भर नी सोए वो.
दाई तोर बर मँय का लिखँव.
मोर कलम तोर बिसय म नइ लिख सकय.
दाई तोर गोड़ के धुर्रा ल मोर माथ म लगा लेहूँ मैं.
कि तोर पूजा करके जिनगी ल सफल बना लेहूँ मैं.
मिलय हर जनम म दाई मोला तोरेच कोरा
खुसी ले भरे राहय मोर जिनगी के झोरा.
दाई तोर बर मँय का लिखँव.
मोर कलम तोर बिसय म नइ लिख सकय.
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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