अरे भाई तू,
कहां खो गया।
क्या सोच कर आया था,
तू क्या हो गया।
रह गया तू सिर्फ,
स्वयं में ही सिमटकर।
मोह,लालच,आलस,
और स्वार्थ में लिपटकर।
भर गया तुम्हारा पेट तो,
मस्त हो गया मस्ती में।
झांक कर भी न देखा कि,
कौन तड़प रहा है बस्ती में।
पहले तो मानवता की,
बड़ी बड़ी बातें करता था।
अपने सामर्थ्य का,
बहुत दम्भ भरता था।
सोच समाज ने तुम्हारे लिए
क्या-क्या न किया।
और बदले में उसे,
तुमने क्या दिया।
हो गए तुम शिक्षित,
क्या दूसरों को भी कुछ सिखाया?
अपनों से दूर तुमने,
एक अलग जहाँ बसाया।
अभी भी वक्त है,
मेरे यार संभल जाओ।
अन्यथा बुजदिलों सा,
किसी पतली गली से निकल जाओ।
काम कोई न छोटा-बड़ा,
फिर क्यूँ करता तू शर्म।
लोग कहेंगे क्या न सोच,
कर केवल अपना कर्म।
तुम योग्य हो समर्थ हो,
तुम्हें सबको साथ लेकर चलना है।
लोगों को सभ्य-शिक्षित बनाकर,
इस अशिक्षित समाज को बदलना है।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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