बुधवार, 29 मार्च 2017

||एक अद्भुत परिवर्तन||(कहानी)

लगभग चार साल की बच्ची को सीने से लगाए वह  हर दिन प्रशिक्षण स्थल बी आर सी भवन माकड़ी  में उपस्थित होती थी,जहाँ रीड इंडिया रीड छत्तीसगढ़ से संबंधित तीन दिवसीय प्रशिक्षण चल रहा था.उस महिला के सांवले किंतु आभायुक्त चेहरे,पहनावे के ढंग तथा बातचीत के तरीके से ही उसके शिक्षित और सभ्य होने का पता चलता था. हर वक्त उसके माथे पर एक शांति तैरती प्रतीत होती थी.रोज अमरावती से लगभग 15 किलोमीटर का सफर बस से तय कर वह प्रशिक्षण स्थल पर पहुंचती थी.

प्रशिक्षण के अंतिम दिन सबको यात्रा भत्ता दिया गया.अपने गांव से अकेला होने के कारण मैंने कोंडागांव होते हुए गांव वापस जाने की सोची. बस स्टैंड पर मैं कोडागांव जाने के लिए बस में बैठा. शाम के 4:30 बज चुके थे बस माकड़ी से चलने को तैयार थी,मैंने देखा कि बस में वही औरत बैठी हुई है और साथ ही  उसके गोद में  उसकी नन्हीं सी बच्ची भी है.

उसने मेरी ओर देखा और उसके चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्कान तैर गई.
बातों-बातों में उसने मुझे अपना भाई बना लिया और उसकी नन्हीं सी बच्ची मेरी भांजी बन गई.उसकी बेटी का नाम ममता था और वह औरत जो अब मेरी अनजानी बहन बन गई थी उसने अपना नाम सरिता बताया.

हम दोनों एक ही सीट पर बैठे थे. मैंने उनसे पूछा कि उसने एकाएक मुझे अपना भाई कैसे बना लिया?उसने बताया कि वह प्रशिक्षण स्थल पर व्यक्त मेरे विचारों और अनुभवों से प्रभावित थीं.और शायद मेरे जीवन में घटित कुछ घटनाएं उनके जीवन के कुछ हिस्सों का स्पर्श करती थीं.
उसकी बातों में मुझे आत्मीयता की झलक मिली.ग्रामीण परिवेश में रहकर भी,हिंदी शब्दों का शुद्ध उच्चारण,वार्तालाप का प्रभावशाली अंदाज और विषय की गहराई तक पहुंचने की उसकी क्षमता वास्तव में आश्चर्यजनक थी.

धीरे-धीरे बस के पहिए आगे की ओर बढ़ चले और इधर सरिता मुझे अपने अतीत में ले  चली.
उनसे मैंने उसकी वह कहानी सुनी जिसे सुनकर मैं सचमुच हैरत में पड़ गया.मैंने सरिता के किसी और ही रूप का साक्षात्कार कर लिया.उसकी बीती जिंदगी के बारे में जानकर मैंने जाना,एक ऐसे औरत को जो मुश्किलों से हँसते हुए लड़ना जानती है,जो निराशा के गहन अंधकार में विश्वास का दीया जला कर चल रही है.जो अपने दम पर ही अपनी तकदीर बदलने में यकीन करती है. जिसके जीवन में असह्य पीड़ा है,आह है,लेकिन इन परेशानियों के बावजूद वह-"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"की उक्ति पर विश्वास रखते हुए "स्थित प्रज्ञ"बनी हुई है.

सरिता आठवीं पास लड़की थी.वह नववीं पढ़ने के लिए पास के ही एक गाँव में जाती थी,उम्र थी 17 वर्ष.
पढ़ाई के दौरान ही सरिता की मानसिक स्थिति खराब हो गई और इसी बीच नजदीक के ही एक गांव के लड़के के साथ सरिता का ब्याह करा दिया गया.आखिर माता-पिता उसे बोझ के सिवाय और कुछ नहीं समझते थे(विक्षिप्तता के कारण).
सरिता का विवाह तो हो गया लेकिन सरिता अब भी एक मनोरोगी थी.शादी के लगभग साल भर बाद सरिता की मानसिक स्थिति सुधरने लगी.अब वह बिल्कुल ठीक हो गई,उसे सब कुछ याद आने लगा.उसे अपनी शादी तक के बारे में पता नहीं था.
लेकिन अब उसे अपनी किस्मत पर रोना आया.उसे अपनी शादी पर पछतावा होने लगा.सरिता ने भी कुछ सपने देखे थे,उसके भी कुछ अरमान थे लेकिन कम उम्र में विवाह हो जाने के कारण वह उन्हें पूरा नहीं कर सकती थी. ऊपर से उनके पति की लत ने उसे परेशान कर दिया.उसका पति शराब,गांजा,बीड़ी सिगरेट,जुए का आदी था.इसी में ही वह सारे रुपये उड़ा देता था.घर के सभी सदस्य घर के कामों में हाथ बँटाते,लेकिन सरिता का पति एकदम ही निठल्ला बनकर घूमता रहता था.सरिता ने अपना सिर पीट लिया.घर के सभी सदस्य भी उसके पति की आदतों से त्रस्त थे.

इसी बीच सरिता ने एक प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया.नाम रखा गया ममता.लेकिन उनके पति नहीं सुधरे. समस्याओं का बोझ अब सरिता के सिर पर आ गया.पति तो था ही व्यसनी,पर अब ममता के पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी उस पर ही थी.घर की आर्थिक स्थिति भी ठीक न थी.जिंदगी की कई तजुर्बों से बेखबर सरिता एक बच्ची ही थी,जो ठीक से चलना भी नहीं सीख पाई थी.जीवन के इस युद्ध में वह खुद को एकदम एकाकी महसूस करने लगी.अब उसे अपने जीवन में केवल अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगा.

और एक दिन सरिता जब अपने मायके गई हुई थी,उन्होंने मायके में अपनी जीवन लीला समाप्त करने की सोची.जीवन की विषम परिस्थियों से वह इस तरह टूट चुकी थी कि अब उसे मृत्यु के सिवाय कुछ और नहीं सूझ रहा था.बेटी ममता का मासूम चेहरा उसे लगातार रुला रहा था,लेकिन हृदय पर पत्थर रख वह ममता को घर में ही छोड़ कर जंगल की ओर निकल पड़ी.आखिर उस बच्ची का क्या अपराध था जो वह आज अपनी मां से सदा के लिए अलग होने जा रही थी.
सरिता ने साल के पेड़ की शाखा से रस्सी बांध दी.बस अब उसमें झूल कर खुद को खत्म कर देने की देरी थी.लेकिन मनुष्य के चाहने मात्र से उसे मौत नहीं मिल जाती.

जैसे ही सरिता फांसी के फंदे में झूलने को तैयार हुई,तभी उनकी सहेलियाँ और माता-पिता उन्हें ढूंढते हुए वही पहुंचे,क्योंकि उन्हें पहले से ही ऐसी किसी अनहोनी की आशंका थी.अब सरिता शर्म से पानी-पानी हो गई.वह बच्चों सी रोने लगी.उसके मां पिताजी और सहेलियोंने उन्हें धैर्य रखने को कहा.उन्होंने कई तरह से सरिता को समझाया.
आखिर सरिता को भी अपनी जिंदगी खत्म कर ममता को अनाथ करने का क्या हक था?सरिता का हृदय तेजी से स्पंदित हो रहा था.उसके भीतर कोई अद्भुत परिवर्तन हो रहा था.उसने स्वयं को बदल डालने का निश्चय कर लिया. उसने ठान लिया कि वह नकारात्मक विचारों को अपने पास फटकने भी नहीं देगी.वह स्त्री है तो क्या हुआ?अब वह  अबला नहीं रहेगी बल्कि अब वह एक सबल और आत्मनिर्भर नारी बनेगी.उसने विचारों और कर्मों को एक नई दिशा देकर अपने जीवन स्तर को सुधारने का दृढ़ संकल्प कर लिया.

वह अपने ससुराल पहुंच गई.लेकिन अब वह बिल्कुल बदल गई है,अब वह पुरूषों की भाँति कठोर परिश्रम करती है,साथ ही समय निकाल कर पढ़ाई भी करती है,क्योंकि उसे अपने कई सपनों को पूरा करना है,जो बचपन में अधूरे रह गए हैं.सरिता के भीतर एक नया परिवर्तन हो चुका है.यही कारण है कि आज मेरे सामने जो सरिता नजर आ रही है,वह एक शोषित,पीड़ित और उपेक्षित नहीं बल्कि वह एक संघर्षशील, विश्वासी और हिम्मती नारी है,जिसे कोई उसके पथ से विचलित नहीं कर सकता.उसने अपने व्यसनी पति को सही रास्ते पर लाने का प्रण कर लिया है.उसे पूर्ण विश्वास है कि एक दिन उसके पति नशे की लत छोड़ देंगे और वो दिन उसकी जिंदगी का सबसे अहम और बहुत ही खुशी का दिन होगा.
अमरावती में बस रुकी जहां वह अपने बेटी ममता के साथ बस से उतरी.उन्होंने मुझे भाव भीनी विदाई दी.गाड़ी चल पड़ी मैं दोनों को तब तक देखता रहा जब तक कि वो मेरी नजरों से ओझल न हो गए.

आज जब उनसे मिले हुए 8 साल बीत गए.मैं कह नहीं सकता कि वह अपने उद्देश्यों में कितनी सफल हुई होगी,क्योंकि मैं उनसे फिर कभी नहीं मिला.

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
e-mail-kerawahiakn86@gmail.com
मो.नं.-9407914158

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