हाँ मैं एक लज्जाशील,विवश-लाचार नारी.
इस पुरुष प्रधान समाज से सदा ही हारी.
तुमने हमेशा,
हैवानियत की हद को छुआ.
हुई कभी जब सीता मैं,
कोई रावण भी हुआ.
थी भले कंचन सी शुद्ध मैं,
पर मेरी हुई अग्नि परीक्षा.
दी गई सदा ही मुझे,
परदे में रहने की शिक्षा.
फिर धोबी के आक्षेप से,
मैं आयोध्या से निष्कासित हुई.
और भाग्य पर अपने रोती हुई,
एक दिन धरती में ही समा गई.
जन्म से अंत तक रही,मैं एक औरत बेचारी.
हाँ मैं एक लज्जाशील,विवश-लाचार नारी.
इस पुरुष प्रधान समाज से सदा ही हारी.
हुई एक दिन द्रौपदी मैं
पली-बढ़ी मैं सुखों की छाँव में.
पर एक वस्तु की तरह एक दिन,
लगाया गया मुझे दाँव में.
केश पकड़ दुशासन जब,
मुझे सभा के मध्य घसीटता हुआ लाया.
भीष्म,द्रोण जैसे धर्मज्ञानी थे वहाँ,
पर किसने प्रश्न उठाया?
और जब आज्ञा पाकर दुर्योधन की,
दुशासन करने लगा संसार का सबसे बड़ा घृणित कर्म.
तब भी चुप ही रहे सब,
नहीं थी किसी की आँखों में तनिक भी शर्म.
यदि उस दिन,
मेरा माधव न होता
तो इतिहास,
स्वयं पर बहुत रोता.
आह!अभागिन मैं,दुर्भाग्य की मारी.
हाँ मैं एक लज्जाशील,विवश-लाचार नारी.
इस पुरुष प्रधान समाज से सदा ही हारी.
फिर बनी कभी मैं रजिया,
और हुई दिल्ली की सुलतान.
पर थी मैं एक औरत,
इसलिए जलते थे कई इनसान.
मर्दों से लिबास पहने,
सर पर पहना ताज.
बेपरदा होकर,
मैंने किया अपने सल्तनत पर राज.
मैंने घुड़सवारी की,
युद्ध भूमि में तलवार भी चलाए.
सबकी परवाह की,
जनहित के कई काम करवाए.
पर एक स्त्री का पुरुष बनना,
समाज को रास नहीं आया.
मेरे विरोधियों ने मुझे इक दिन,
मृत्यु की नींद सुलाया.
यहाँ भी तुम्हारा ही पलड़ा रहा भारी.
हाँ मैं एक लज्जाशील,विवश-लाचार नारी.
इस पुरुष प्रधान समाज से सदा ही हारी.
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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