हे ईश्वर मुझे,
एक नई शक्ति दे.
खो गई है जो संभवत:,
फिर से मुझे वह भक्ति दे.
था अब तक सोया मैं,
तुम्हारे शब्द से ही था जागा.
फिर से निर्जीव हो चला,
मैं मूढ़,कितना अभागा.
रहा सदा ही,
मैं तुम्हारा उपकृत.
किन्तु सुख पाकर,
करता रहा मैं तुम्हें विस्मृत.
पड़ी मुझ पर ज्यों,
किसी दैत्य की काली छाया.
कि घेर रही मुझे,
ये सांसारिक मोह-माया.
क्या करूं क्या नहीं?
मुझे कुछ भी नहीं सूझता.
है मन जैसे,
स्वयं से ही जूझता.
मिल गया कुछ तो,
हो रहा मैं आत्म मुग्ध.
यदि न मिला वह,
तो हो रहा मन क्षुब्ध.
जब-जब भी जीवन में,
विपत्तियों का समय आया है.
उन विषम परिस्थितियों से,
तुमने ही मुझे बचाया है.
प्रभ मुझे इस,
भयावह भँवर से निकाल लो.
न बन जाऊँ कहीं पतित मैं,
मुझे तनिक संभाल लो.
मेरी सारी पीड़ाएँ हर कर,
बना दो तुम मुझे अशोक.
ताकि ये निजी व्याधियां,
न सकें मेरा कर्तव्य पथ रोक.
कुरुभूमि के निराश अर्जुन की तरह,
प्रभु मैं हूँ तुम्हारी शरण में.
न त्यागो मुझ कृतघ्न को,
स्थान दो मुझे अपने चरण में.
✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
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