मनुष्य जीवन भी बड़ा अजीब.
क्या सोचता है वह
और कहां ले जाता है उसका नसीब.
संवादों,हाव-भाव पर था खूब ध्यान देता.
कभी बनना चाहता था मैं अभिनेता.
बनना चाहता था अमिताभ, दिलीप, राजेश खन्ना.
पर रह गई अधूरी मेरी तमन्ना.
न बँध सका मेरे सर कामयाबियों का सेहरा.
क्योंकि खुदा ने न दिया मुझे एक खूबसूरत चेहरा.
चलो न बन सका यदि मैं नायक.
फिर सोचा कि बन जाऊँ मैं गायक.
है अपना दिल तो आवारा,
हेमन्त कुमार सा गाऊँ.
या कजरा मुहब्बत वाला,
आशा जी सा गुनगुनाऊँ.
गाऊँ महेंद्र कपूर सा,बनूँ रफी, मुकेश, किशोर, लता.
पर मुझे न था सुर-सरगम का पता.
फिर सोचा एक दिन कि मैं बनूँ संगीतकार.
धुनों से अपनी झंकृत करूँ सबके हृदय तार.
बनूँ मैं नौशाद,शंकर जयकिशन,आर डी बर्मन.
नाम सुना था राजेश-रोशन,लक्ष्मीकांत प्यारेलाल,आ.डी बर्मन.
पर मेरे पास नहीं थे पर्याप्त साज़.
हुआ यहां मैं फिर से निराश.
फिर मैंनेे सोचा कि क्यों न लिखूँ मैं.
क्योंकि यहाँ सूरत नहीं,
सीरत देखी जाती है.
लिखने के लिए शायद चाहिए,
बस एक ही चीज़.
और वह है भावना.
रचनाकारअशोक:-"बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
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