बोला मुझसे वह,
आजकल बहुत प्रसन्न दिख रहा है.
शायद इसलिए,
कि तू लिख रहा है.
पर ऐसा करके,
तू क्या पाता है?
लेखन से तू,
कितना कमाता है?
आज जब सबने,
धर्म और सत्य का चोला उतार फेंका है.
क्या एक बस तू ही है,
जिसने लिया परहित का ठेका है?
तुम्हारी नसों में बहता है,
जाने कौन सा रक्त.
कि केवल पीड़ा,प्रेम और प्रेरणा ही,
तुम्हारे लेखन में होता है व्यक्त.
लिखते हो केवल करुण,शांत रस पर ही,
कभी तो लिखो श्रृंगार पर.
किसी वृक्ष की छाया तले,
मिलते नायक-नायिका के प्यार पर.
या फिर ऐसा करो,
यह कलम तोड़ दो
और हमेशा के लिए,
लिखना छोड़ दो.
यदि किसी काम से,
अर्जित न हो तनिक भी अर्थ.
मेरी सोच में,
वो काम है बिल्कुल ही व्यर्थ.
कहा मैंने लिखता नहीं मैं,
किसी कमाई के लिए.
मेरी छोटी सी ये कोशिश है,
औरों की भलाई के लिए.
कागज और कलम से,
जाने मेरा किस जन्म का नाता है.
कि स्पर्श किए बगैर इन्हें,
मुझे चैन नहीं आता है.
आज जब चीख-पुकार ही,
मची है चारों ओर.
तो तुम ही कहो सिवा इसके,
क्या मैं लिखूं कुछ और?
भले ही मैं बड़े साहित्यकारों सा,
कलम न तोड़ूँ.
पर इच्छा है यही मेरी कि,
कभी लेखन न छोड़ूँ.
अगर सोचते हो तुम मैं छोड़ दूंगा लेखन,
तो यह है मात्र तुम्हारा भ्रम.
जिस दिन टूटेगी सांस मेरी,उसी दिन टूटेगा,
मेरे लिखने का यह क्रम.
✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें