(मेरी यह कविता इस साल(2017 में)होली से पहले सुकमा जिले में शहीद 12 जवानों के परिवार को समर्पित है.)
मुझे प्राण से भी बढ़कर प्यारा था.
ऐ लाल,तू मेेरा राज दुलारा था.
पास कुछ नहीं बचा अब खोने को.
छोड़ गया तू हमें रोने को.
मेरी आँख का तारा था तू,
रह गई अब खाली मेरी झोली.
बेटा अब तुम बिन,
मैं कैसे खेलूँगी होली?
याद है भैया मुझे पिछला राखी का त्यौहार.
मुझे आपने ने दिया था एक सुंदर सा उपहार.
तुम संग लड़ना-झगड़ना,और वो रूठना-मनाना.
कभी-कभी आपका मुझे अपने हाथों से खिलाना.
मुझे हाथों से खिलाने वाला,
कैसे खा गया आज गोली?
भैया अब तुम बिन,
मैं कैसे खेलूँगी होली?
मेरे प्रियतम,स्वामी तुम मेरे प्राणनाथ.
आज क्यूँ कर चले तुम मुझे अनाथ.
सात जन्मों के सातों वचन तोड़कर.
आज चल दिए अकेले ही मुख मोड़कर.
रो-रो आँसुओं से आज मैंने,
अपने माँग की सिंदूर धोली.
प्रियतम अब तुम बिन,
मैं कैसे खेलूँगी होली?
पापा आपका मुझे वो परियों की कहानी सुनाना.
प्यार से मुझे उठाकर अपने कंधे पर बिठाना.
थी भले मैं बेटी पर आपने सदा मुझे बेटा ही कहा.
आह! कि मेरे सर पर अब वह हाथ न रहा.
क्या करुँ पापा कल ही मैंने,
खरीदी थी बाजार से रोली.
पापा अब तुम बिन,
मैं कैसे खेलूँगी होली?
✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें