मुझसे ये कहा है,
मेरे दिल ने.
कि जा तू एक रोज,
अपनी माँ से मिलने.
बहुत जल्द मैं,
तुम्हारे द्वार पर आऊँगा,
और तुम्हारी,
लाल चूनर भी लाऊँगा.
मन डूब जाएगा फिर से,
किसी सुखद आश्चर्य में.
और खो जाएँगे नैन,
सघन वनों के सौंदर्य में.
आलसी तन,कामचोर मन,
तुम्हें विस्मृत कर जाता हूँ.
फिर आहत हो जग की पीड़ा से,
मैं तुम्हारे दर पर आता हूँ.
मेरे हृदय में हमेशा,
बसती है जो सूरत.
फिर देखूँगा मैं,
तुम्हारी वही साँवली सलोनी मूरत.
फिर तुम्हारा चरण रज,
माथे से मैं लगाऊँगा.
तुम्हारे आगे फिर से,
मैं अपना शीश झुकाऊँगा.
माँ तुमने मुझे,
क्या-क्या न दिया.
पर कृतघ्न मैं कि,
संसार के लिए कुछ न किया.
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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