शांति का टापू,
यह साल वनों का द्वीप,
बस्तर जल रहा है .
जल रहा है यह लाल अग्नि में,
जिसमें आहूत हो गये अब तक जाने कितने,
और न जाने कितनों को
इसमें जलना है.
चलना इस जमीं पर
मगर जरा संभलकर,
क्या पता कि बारूद बिछा हो कहीं पर.
क्योंकि इस बारूद ने अब तक
कई स्त्रियों के सिंदूर मिटाए हैं.
और इसने कई माताओं के आँखो के तारों को
मौत की नींद सुलाया है.
इन वनों,घाटियों,झरनों के मध्य
दहशत का भी बसेरा है.
पता नहीं कितनी दूर
इस रात का सवेरा है.
अशोक:-"बस्तरिया"
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