यह आकाशवाणी जगदलपुर है रेडियो पर सुनते ही मैं रोमांचित हो जाता था।
रेडियो से ही जाना था कि उसका प्राचीन नाम जगतुगुड़ा था और यहां नल-नागवंशी और काकतीय राजाओं का शासन रहा था।
और यह भी कि यह नगर गुलशेर अहमद शानी व लाला ज़गदलपुरी सरीखे साहित्य शिल्पियों की कर्मस्थली रहा है।
कभी हाई स्कूल में रामवृक्ष बेनीपुरी जी का निबंध "नींव की ईंट"पढ़ाते हुए हमारे हिन्दी के शिक्षक ने बताया था कि कई साहित्यकार अपने स्थान के नाम को अपने उपनाम के रूप में लिखते हैं जैसे
बेनीपुर के रामवृक्ष बेनीपुरी
सुल्तानपुर के मजरूह सुल्तानपुरी
जयपुर के हसरत जयपुरी
जगदलपुर के लाला जगदलपुरी
उस दिन ही मैंने सोच लिया था कि यदि मैं कभी लिखूँगा तो मेरा उपनाम "बस्तरिया" ही होगा।
आकाशवाणी में पत्र भी मैं इसी नाम से प्रेषित करता था।
पर जगदलपुर जाने का अवसर मुझे बहुत विलम्ब से मिल सका।
वैसे परीक्षा आदि के सिलसिले में मैं एक बार रायपुर और भोपाल तक की यात्रा कर चुका था।परंतु मेरा दुर्भाग्य था कि स्नातक तक की पढ़ाई करने और अपनी उम्र के 21 वसंत पूरा कर लेने के बाद भी मैं अपने *सपनों के शहर*को नहीं देख पाया था|
जिस शहर के बारे में,
मैंने बचपन से पढ़ा-सुना था।
उससे मिलने के लिए ईश्वर ने,
शायद कोई खास दिन चुना था।
और एक रोज़
वो खास दिन आ ही गया।
सन् 2008 की व्यापम के शिक्षा कर्मी की परीक्षा में अन्य साथियों के साथ मैं भी माकड़ी ब्लाक में शिक्षक वर्ग ३ के रूप में चुना गया। ब्लॉक ऑफिस में बताया गया कि सभी को अपना चिकित्सा प्रमाण पत्र बनवाना होगा,जो केवल जिला चिकित्सालय में बनता है।यह सुनकर मैं खुशी से पागल हो गया।
मैं कभी नहीं भूल सकता वो ४ जुलाई सन् २००८ दिन शुक्रवार।
जिस दिन मैं अपने एक साथी के साथ महिंद्रा की बस से कोंडागाँव से जगदलपुर के लिए रवाना हुआ।जितनी गति बस की थी उससे कहीं अधिक रफ्तार से दौड़ रहा मेरा मन जगदलपुर से मिलने को बेताब था।
याद आता है अब भी सड़क किनारे खड़े साल वृक्षों की कतारें,वह बस्तर हाट का दृश्य और वह इंद्रावती के प्रथम दर्शन।
इंद्रावती नदी को देखते ही मन ही मन उसे प्रणाम भी किया।
नगर में घुसते ही मुझे रास्ते पर एक दूसरे के कमर में हाथ रखकर नृत्य करतीं आदिवासी औरतों की मूर्तियाँ दिखीं,साथ ही दिखा दंडामी माड़िया चौक पर माँदर लिए खड़ा माड़िया युवक का विशाल बुत।
वहीं दाईं ओर कुम्हार पारा जाने वाले मार्ग पर दीवार पर बस्तर दशहरे को तो बिल्कुल जीवन्त ही कर दिया गया है।
महात्मा गांधी मार्ग होते हुए बस ने जैसे ही नगर प्रवेश किया खिड़की किनारे बैठा मैं तड़-तड़ की आवाज से पहले तो चौंका फिर याद आया कि -अरे!आज तो गोंचा पर्व है।
मैं क्या कहूँ!मेरी प्रसन्नता कई गुना बढ़ गई।
चारों ओर मेले का माहौल था।
क्या बूढ़े,क्या बच्चे,क्या नौज़वान।सभी के हाथों में रंगीन तुपकियाँ और पेंग के फल ही दिखाई दे रहे थे।
जिला चिकित्सालय में भी लोगों का हुजूम था।
वहाँ चिकित्सा प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करके हम जी भर जगदलपुर शहर घूमे।
चांदनी चौक,संजय बाजार,अग्रसेन चौक,दलपत सागर, राजमहल,दंतेश्वरी माता का वह मंदिर, वह सिरहासार के निकट खड़ा रंगीन वस्त्रों से सजा हुआ विशाल रथ। सब कुछ मनभावन था।
हम राज महल के भीतर भी गए।जहां से बस्तर नरेश कमलचंद्र भंजदेव को छत्र ओढ़ाकर,ढोल-नगाड़ों की आवाज के साथ सामने ही सिरहासार भवन के निकट स्थित एक मंदिर में पूजन करने हेतु लाया गया।
सचमुच उस दिन की खुशी मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता।
चिकित्सा प्रमाण लेकर जब मैं देर शाम-रात तक घर में पहुंचा।
तब मैंने उस दिन अपनी डायरी में लिखा कि-
जिसे देखने को तरसती थी
अब तलक मेरी नजर,
आज देख सका,
मैं वह शहर।
रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
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