शनिवार, 4 मार्च 2017

||हाँ ये सत्य है||

हां ये सत्य है कि एक दिन
मैं हंसते-गाते इस रंगीन संसार को
सदा के लिए त्याग दूंगा.
पर मेरा हृदय है कि
इस सत्य को मानता नहीं.

अपने बटे की मृत्यु पर
मेरी माता बहुत रोएगी.
मेरा स्मरण कर
वह कई रात न सोएगी.
मेरी पत्नी की चूड़ियां पत्थरों से तोड़ दिए जाएंगे.
उसका सिंदूर माथे से मिटा दिया जाएगा.
पिता भाई बहन पुत्र पुत्री और न जाने कई
जिसे मैं अपना कहता हूं.
सब बहाएँगे मेरी मृत्यु पर अश्रु.
पर मेरा शरीर पड़ा होगा बिल्कुल शांत.

बांस के तने पर केले के पत्ते बांधकर,
मेरा शरीर उस पर लिटाया जाएगा.
निर्जीव-काली,मिट्टी के तन पर
श्वेत वस्त्र ओढ़ाया जाएगा.
तन रथ पर न होगी आत्मा रथी जब,
तब चार कंधो पर बैठकर
मैं करूंगा अपनी अंतिम यात्रा.
दो पैरों पर खड़ा होने वाला मेरा देह
आठ पैरों के सहारे पहुंचेगा शमशान घाट तक.

फिर उन्हीं पत्थरों के किनारे
जहां मेरे पूर्वजों को दफनाया गया है.
उसी के आस-पास मुझे भी गाड़ दिया जाएगा
दो जख में.
और बना दिया जाएगा
एक छोटा स्मारक कुछ दिनों के लिए.

वक्त बीतता जाएगा
बीतता जाएगा.
और एक रोज.
सब कुछ सामान्य हो जाएगा.
पर मेरा हृदय है कि
इस सत्य को मानता नहीं.

लेकिन ऐसा तो मेरे साथ
कई जन्मों से होता आ रहा है.
और मैं हूं कि आज तक
अपने मनुष्य होने को सार्थक नहीं कर सका हूँ.
शायद इस जन्म में,
मेरा मानव होना सार्थक हो जाए.

रचनाकार अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail. com
📞940714158

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